कण्यार्कली जिसे देशत्तुकली या मलमकली भी कहा जाता है प्रायः पालक्काड इलाके के नायर समुदाय में प्रचलित एक लोक कला रूप है। इसका मूल इस इलाके में मार्शल आर्ट (युद्धक कला) के प्रचलन में खोजा जा सकता है जिसके ऊपर पड़ोसी कोंगनाड इलाके के लोग निरंतर आक्रमण करते रहते थे।
कण्यार्कली का जन्म तब हुआ जब इसमें नृत्य और हास्य के पुट शामिल हुए जिससे युद्ध प्रशिक्षण सत्र में और भी उत्साह और रोचकता का वातावरण निर्मित हुआ। इस कला रूप में युद्धक कलाओं की तेज गति के साथ निलविलक्कु (धातु का पारंपरिक ऊंचा दीपक) के चारों ओर होने वाले लोक नृत्य का तालबद्ध लालित्य शामिल है।
मंदिरों में तथा अनौपचारिक रूप से लोगों के एकत्र होने वाले “तरा” कहलाने वाले स्थलों पर मार्च-अप्रैल के दौरान प्रदर्शित होने वाला यह कला रूप के साथ लोक भक्ति गीतों का गायन और ढोल-नगाड़ों की तेज थाप का संगीत होता है। वाद्यवृंद में शामिल हैं इलत्तालम या झांझ(मजीरा) और आघात वाद्ययंत्र जैसे कि चेंडा, मद्दलम, इडक्का और उडुक्कु।
कण्यार्कली नर्तकों के एक दल में छह से बीस तक सदस्य होते हैं और प्रदर्शन प्रायः चार दिनों तक चलता है। प्रत्येक दिन के प्रदर्शन का अलग नाम होता है, जैसे: इरवक्कली, आंडिकूत्त, वल्लोन और मलमा।आखिरी दिन का प्रदर्शन पहाड़ी जनजाति समुदायों द्वारा किया जाता है जिसमें महिलाएं भी शामिल होती हैं।